वो हँसता वो खिलखिलाता सा बचपन,बेबात ही मुस्कुराता वो बचपन ,
वो ड़र -ड़र के सीखने में,गिरता कभी लड़खड़ाता सा बचपन।
रेत के इग्लू बनाता वो बचपन, मोहल्ले में हुल्लड़ लगाता वो बचपन ,
हरदम ही अपनी चलाता वो बचपन,न मानो तो रूठ जाता वो बचपन।
बरसाती पानी के छींटे उड़ाता , कुछ मटमैला,कुछ भीगा-सा बचपन ,
माटी में खेले,और खाने को माटी, लोगों से नज़रें बचाता वो बचपन।
तितली पकड़ने कि कोशिश में ,वो उड़ता दौड़ लगाता-सा बचपन,
छुपम-छुपाई ,पकड़म-पकड़ाई मनमाने खेल खिलाता वो बचपन।
त्योहारों की मिठाई देख ललचाता,मिलने कीआस में चक्कर लगता वो बचपन ,
छत से पानी के रंगीन गुब्बारे फोड़े,बचने को खुद झट से नीचे बैठ जाता वो बचपन।
छुप-छुप के चीज़ें चुराता कभी,पकड़े जाने पर गुमसुम सा डाँट खाता वो बचपन ,
आँखों से दो मोती गिरा कुछ ही देर में,सब भूल जाता वो मस्तमौला सा बचपन।
न माने किसी की वो ज़िद्दी सा बचपन ,अपनी ही चलाए वो पिद्दी सा बचपन ,
न रूठने ही दे नादानियों से अपनी,निश्छल मनोभाव वाला वो बचपन।
वो बिन सोचे कुछ भी ,कहीं पर भी कहना ,अपना पराया कुछ ना समझना ,
वो नादान ,आतुर ,बेपरवाह सही झाँक लेता है भीतर से यूँ ही कभी ,मुझमे वो घटता जाता सा बचपन।
©® सुप्रिया सिंह
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