मिली जो मुझे दुश्वारियों की गली , चल पड़ी जिन पर मै,करके सब कुछ फ़ना। कहते हैं वो कि खोनाऔर पाना ही तो है ज़िन्दगी, लगा मिल जाए शायद मुझे कुछ नया। वक़्त-ए-सितम पर जो मरहम करे , बिखरे ख्वाबों को दे मेरे फिर से सजा। जो चले संग मेरे दूर तक बस यूँ ही , ना रखे हिसाब गुज़रते वक़्त का। ढूंढा,देखा उसे हर तरफ,हर जगह, पर ऐसा तो कोई ना मिला सका। बैठे -बैठे यूँ ही बस ख़याल आ गया , मिली हैं जो फ़ुरसतें,उठा लूँ कुछ फ़ायदा। झांँक लूँ ख़ुद के भीतर,जो अब तक ना किया, जो झाँका तो,टूटा बिखरा-सा मिला सब वहाँ। इक दफ़ा ,खुद सम्भलने की कोशिश न की , रोज़ अगली ही मै उठ खड़ा हो गई। छोड़ कर राह तकना, कर दिया अब शुरू काम खुद को सँवारने और बेहतर करने का, उस दिन यूँ लगा कि हाँ ,था वो यहीं मेरे भीतर कहीं ,थी रही खोज जिसको यहाँ से वहाँ , था नया-सा वो बस ,कुछ बढ़ा सा वो बस कुछ और नहीं हौंसला था मेरा। ©®सुप्रिया सिंह