खिलखिलाहट न जाने कब मुस्कराहट में बदल गई ,
मस्ती मज़ाक, न जाने कब अदब में बदल गए।
चँहकते दौड़ लगाना संभल कर चलना हो गया
अपने ख्यालों में खोए रहना बांवरापन सा हो गया।
जो कभी छोटे -छोटे से सपने थे ,
आज पर्वतों से ऊँचे और कठिन लगने लगे।
जहाँ बिन कहे ही ज़रूरतें पूरी हो जाया करती थीं
वहाँ ज़रा-ज़रा सी ख़्वाहिशों पे रोना मचने लगा।
बेफिक्र अपनी बात कह देना ,
अब सोच समझ कर बोलना हो गया.
न जाने कब सबके साथ प्यार से रहने की सीख ,
सोच समझ कर रिश्ते बनाने में बदल गई।
सब बेपरवाह ज़ाहिर कर देना ,
घुट-घुट कर जीना हो गया।
बिन बताए मन के काम कर लेना ,
आज मन मसोस कर रह जाने सा हो गया है।
बस यूँ ही खुद को गवाँते,भारी कीमत चुकाते,
न जाने कब हम समझदार हो गए।
©सुप्रिया सिंह
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