तू साँझ सी ढलती कभी ,है कभी सुनहरी धूप खिली
हैं राहतें तुझमे ,तो कुछ बेचैनियाँ भी हैं।
एक पल को तू है सामने करती कई अटखेलियाँ
दूजे ही पल बन बैठी कई पहेलियों सी है।
है समय की पाबंद तो अलसाई सी है कभी
मिजाज़ में तेरे भी कुछ मनमानियाँ तो हैं।
धड़कती तू है कहीं मैं बिसर (भूल)जाती हूँ तुझे
ये फ़ुर्सतों की कमी मेरी मजबूरियाँ जो हैं।
बहकी -बहकी सी है तू कुछ,उलझी -उलझी सी हूँ तुझमे
संग तेरे इस सफ़र में बड़ी गहराइयाँ भी हैं।
-सुप्रिया सिंह
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